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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

व्याख्या भाग

प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)

श्रीकृष्ण का वचन उद्धव प्रति

(1) 

तबहि उपँगसुत आय गए।
सखा सखा कछु अंतर नाहीं भरि भरि अंक लए।
अति सुंदर तन स्याम सरीखो देखत हरि पछिताने।
ऐसे को वैसी बुधि होती ब्रज पठवै तब आने।
या आगे रसकाव्य प्रकासे जोग बचन प्रगटावै।
सूर ज्ञान दृढ़ याके हिरदय युवतिन जोग सिखावै॥3॥

शब्दार्थ - उपँगसुत = = उद्धव। अंक लए = गले मिलकर तन = शरीर। हरि = श्रीकृष्ण। आने = विचार किया। रस-कथा = प्रेम की कवित्वपूर्ण बातें। प्रकासौं = प्रकट करना। याकौ = दूसरे जुवचिन्ह युवतियाँ, गोपियाँ।

प्रंसग - प्रस्तुत पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित व सूरदास द्वारा रचित 'सूरसागर' के 'भ्रमरगीत सार' से उद्धृत है। इस पद में सूरदास कहते हैं कि गोपियों की स्मृति में तन्मय कृष्ण उनका समाचार प्राप्त करने के उद्देश्य से किसी को वहाँ भेजना चाहते थे, उसी समय उद्धव वहाँ पहुँच गये। सूरदास ने इसमें श्रीकृष्ण और उद्धव के व्यक्तित्व की विशेषताओं का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है।

व्याख्या एक बार जब भगवान श्रीकृष्ण ब्रज की मधुर यादों में डूबे हुए थे, तब ही उद्धव वहाँ पहुँच गये। दोनों मित्रों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं था, क्योंकि दोनों ही श्याम वर्ण के थे और अभिन्न मित्र थे। अतः कृष्ण ने उद्धव को अपने गले लगा लिया। परन्तु श्रीकृष्ण उद्धव के शरीर को अपने जैसा शरीर देखकर मन ही मन पछताने लगे। वे सोचने लगे कि यदि ऐसे सुन्दर शरीर वाले व्यक्ति अर्थात् उद्धव के पास यदि प्रेम-भक्ति की बुद्धि होती तो बहुत ही अच्छा होता। अतः कृष्ण ने मन में विचार किया मैं इसी को ब्रज में भेज देता हूँ। मैं इसके आगे प्रेम रस की कथा को प्रकट करूँ और बाद में योग की कथा कहूँ। सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण मन ही मन सोचते है कि मैं उद्धव के ज्ञान को सुदृढ़ करके युवतियों के पास भेजूँगा।

विशेष
1- उद्धव का शरीर भी कृष्ण के समान श्याम वर्ण का है। परन्तु उसका आन्तरिक रूप आकर्षित नहीं है। उद्धव की बुद्धि भेद-बुद्धि है परन्तु श्रीकृष्ण की बुद्धि भिन्नत्व को अभिन्न देखती है यही दोनों के व्यक्तित्व में विरोधाभास है।
(2) इस पद में अनुप्रास, वीप्सा, पुनरुक्ति प्रकाश तथा उपमा अलंकारों का सुन्दर एवं स्वाभाविक प्रयोग है।
(3) सरल, सहज, बोधगम्य साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है।

 

(2)

हरि गोकुल की प्रीति चलाई।
सुनहु उपँगसुत मोहिं न बिसरत ब्रजबासी सुखदाई॥
यह चित जाउँ मैं अबहीं, यहाँ नहीं मन लागत।
गोप सुग्वाल गाय बन चारत अतित दुख पायो त्यागत॥
कहँ माखनचोरी? कह जसुमति 'पुत जेंव' करि प्रेम।
सूर स्याम के बचन सहित सुनि ब्यापत आपन नेम॥4॥

शब्दार्थ - प्रीति चलाई = ब्रजवासियों के प्रेम की चर्चा की। उपँगसुत = उद्धव। विसरत = भूलना सहित = प्रेम पूर्वक नेम = योग मार्ग के नियम।

प्रसंग - प्रस्तुत पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित व सूरदास द्वारा रचित 'सूरसागर' के 'भ्रमरगीत सार' से उद्धृत है। कवि सूरदास जी कहते हैं कि उद्धव के आते ही श्रीकृष्ण गोकुल में व्यतीत होने वाले अपने बाल्यकालीन जीवन की मधुर चर्चा करने लगे। परन्तु उद्धव अपने ज्ञान-ध्यान में ही डूबा रहा।

व्याख्या - सूरदास जी कहते हैं कि उद्धव के आने पर श्रीकृष्ण उनके समक्ष गोकुल के प्रेम की चर्चा प्रारम्भ कर दी। उन्होंने कहा, हे उद्धव ! सुनो मैं उन ब्रजवासियों की स्मृति को नहीं भुला पाता जो अपने व्यवहार द्वारा मुझे सुख दिया करते थे। मेरा मन तो यह करता है कि मैं अभी ब्रज में चला जाऊँ, क्योंकि यहाँ मथुरा में मेरा मन नहीं लगता। वहाँ मैं ब्रज में गोप-ग्वालों के साथ वन में गायों को चराने के लिए जाया करता था। लेकिन इन कामों को छोड़ते समय बहुत दुःख हुआ था। वहाँ तो ब्रज में मुझे खाने की मक्खन रोटी मिलती थी और यशोदा माता मुझे आग्रहपूर्वक कहती थी ये खा लो, वह खा लो।

सूरदासजी कहते हैं कि इन प्रेमयुक्त वचनों का उद्धव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बल्कि वह तो कृष्ण के वचनों को सुनकर हँसने लगा और उसने कृष्ण के समक्ष अपने योगमार्ग के नियमों की स्थापना की।

विशेष -
(1) कवि ने श्रीकृष्ण के बाल्याकालीन स्मृतियाँ का बड़ा ही सुन्दर एवं स्वाभाविक प्रयोग किया है।
(2) इसमें अनुप्रास तथा पुनरुक्ति प्रकाश अलंकारों का सुन्दर एवं स्वाभाविक प्रयोग है।
(3) इस पद में सरल, सहज एवं बोधगम्य साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है।

 

(3)

उद्धव ! यह मन निश्चय जानो।
मन क्रम बच मैं तुम्हें पठावत ब्रज को तुरत पलानो॥
पूरन ब्रह्म, सकल, अविनासी ताके तुम हो ज्ञाता।
रेख, न रूप, जाति, कुल नाहीं जाके नहिं पितु माता॥
यह मत दै गोपिन कहु आवहु बिरह नदी में भासति।
सूर तुरत यह जाय कहौ तुम ब्रह्म बिना नहीं आसति॥7॥

शब्दार्थ - बच = बचन। क्रम = कर्म। तूरति पठानो = शीघ्र प्रस्थान करो। अविनासी = अनश्वर। ज्ञात = ज्ञानी, जानकार भासति = डूबी है आसति = आसक्ति, मुक्ति।

प्रसंग - प्रस्तुत पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित व सूरदास रचित 'सूरसागर' के 'भ्रमरगीत सार' से उद्धृत है। सूरदास का कथन है कि श्रीकृष्ण उद्धव को दो प्रयोजनों की सिद्धि के लिए ब्रज भेज रहे हैं एक तो उद्धव के ज्ञान का पतन और दूसरा ब्रजवासियों को जो वियोग से जल रहे हैं आश्वासन एवं धैर्य मिलेगा।

व्याख्या - उद्धव की ज्ञान गर्व की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा कि हे उद्धव ! तुम इस बात को निश्चय मन से जान लो कि मैं तुम्हें मनसा, वाचा, कर्मणा, ब्रज में भेज रहा हूँ। अतः तुम शीघ्र ही ब्रज की ओर प्रस्थान करो। हे उद्धव ! तुम्हारा ब्रह्म पूर्ण और नश्वर है। तुम उस ब्रह्म के सच्चे ज्ञाता हो। उस ब्रह्म की न कोई जाति है, न कुल है, न कोई माता-पिता है। वह ब्रह्म इन सारी उपाधियों से रहित है। तुम अपना यह सिद्धान्त गोपियों को सिखाकर आओ। क्योंकि वे तो विरह रूपी नदी में डूब रही है। भाव यह है कि ब्रज की गोपियाँ सगुण ब्रह्म का समर्थन करती हुई प्रेम विरह के कारण व्याकुल है। अतः तुम जाकर समझाओ कि ब्रह्म ज्ञान के बिना किसी का भी अस्तित्व नहीं है अर्थात् तुम वहाँ जाकर गोपियों को यह समझाओ वे मुझसे प्रेम करना छोड़ दे और निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करें। इसे से उन्हें मुक्ति की प्राप्ति होगी। प्रेम और भक्ति से मुक्ति संभव नहीं है।

विशेष -
(1) इसमें सगुण और निगुणोपासना विषयक द्वन्द्व का संकेत है।
(2) 'बिरह नदी में भासति में निरंग रूपक 'यह मत गोपिन' दै आबहु में पर्यायोक्ति अलंकार है। इसके साथ ही व्यंग्य गर्भित उक्ति की प्रधानता है।

 

(4)

पथिक ! सँदेसो कहियो जाय।
आवेंगे हम दोनों भैया, मैया जनि अकुलाय॥
याको बिलगु बहुत हम मान्यो जो कहि पठयो धाय।
कहँ लौं कीर्ति मानिए तुम्हरो बड़ो किया पय प्याय।
कहियो जाय नंद बाबा सों, अरु गहि पकश्यो पाय।
दोऊ दुखी होन नहिं पावहिं धूमरि धौरी गाय।
यद्यपि मथुरा बिभव बहुत है तुम बिनु कछु न सुहाय॥
सूरदास ब्रजवासी लोगनि भेंटत हृदय जुड़ाय॥॥

शब्दार्थ विलयु = बुरा। धाय = नौकरानी, दूध पिलाने वाली। पय प्याय = दूध पिलाकर। धूमरि धुएँ के रंग का। धौरी = उज्जवल जुड़ाय = प्रसन्न होना।

प्रसंग - प्रस्तुत पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित व सूरदास रचित 'सूरसागर' के 'भ्रमरगीत सार' से उद्धृत है। सूरदास का कथन है कि श्रीकृष्ण किसी पथिक से गोपियाँ के पास अपना संदेश भेज रहे हैं। इस संदेश प्रेषण में श्रीकृष्ण ने अपने मानस की उस प्रतिक्रिया को व्यक्त कर रहे हैं जिसमें माता यशोदा ने देवकी के पास इस प्रकार का संदेश दिया था कि 'हौ तो धाय तिहारेस्फुत की मयाकरत ही रहियो।

व्याख्या - श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पथिक ! तुम हमार यह संदेश ब्रज जाकर कह देना कि हम दोनों भाई शीघ्र आयेंगे और माता यशोदा घबराए नहीं। तुम यह भी कह देना कि देवकी के पास तुमने जो संदेश भेजा है उसमें अपने को 'धाय' माना है। हमें तुम्हारे धाय के प्रयोग महान कष्ट हुआ है। व्यंजना यह है कि धाय जैसे नगण्य शब्द के प्रयोग से हमें बहुत बुरा लगा है। आप तो परम पूज्य माता है धाय तो नौकरानी और सेविका का बोधक है दोनों में महान अन्तर है। हम तो तुम्हारे उपकार के भार से दबे है। तुम्हारे यश का वर्णन कहाँ तक करें, तुमने तो दूध पिलाकर हमें इतना बड़ा किया है। भला, जिसने दूध पिलाकर बच्चा से तरुण बनाया है उसके उपकार को कैसे भूल सकते हैं।

हे उद्धव ! तुम नन्द बाबा के पांव पकड़ कर हमारी ओर से कहना कि हमारी दोनों गायें श्याम और उज्जवल दुःखी न होने पाये। उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो। यद्यपि मथुरा में ऐश्वर्य और वैभव की कमी नहीं है। किन्तु तुम्हारे बिना वास्तविक सुख नहीं मिलता। कुछ भी अच्छा नहीं लगता। हमारा हृदय तो ब्रजवासियों के भेंटने पर ही शीतल हो पाता है अर्थात् वास्तविक आनन्द की प्राप्ति होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि उन ब्रजवासियों से मिलने पर ही हृदय की पीड़ा और दुःख की ज्वाला दूर होगी।

विशेष-

(1) इसमें मातृ प्रेम की उत्कृष्ट व्यंजना की प्रधानता है।
(2) अन्तिम पंक्ति में प्रयुक्त 'जुड़ात' में शब्द रूढ़ि लक्षणा है।

 

(5)

उद्धव मन अभिलाष बढायो।
जदुपति जोग जानि जिय साँचो नयन अकास चढ़ायो।
नारिन पै मोको पठवत हौ कहत सिखावन जोग॥
मनहीं मन अब करत प्रसंसा है मिथ्या सुखभोग॥
आयसु मानि लियो सिर ऊपर प्रभु आज्ञा परमान॥
सूरदास प्रभु पठवत गोकुल मैं क्यों कहीं कि आन॥11॥

शब्दार्थ - जदुपति = श्रीकृष्ण। जोग = योग। आयुस्क = आज्ञा। पठवत = भेजते हैं। परमान = प्रणाम। आन = अन्य बात।

प्रसंग - प्रस्तुत पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित व सूरदास रचित 'सूरसागर के "भ्रमरगीत सार' से उद्धृत है। इसमें श्रीकृष्ण की व्याकुलता को देखकर उद्धव यह समझने लगता है कि श्रीकृष्ण उसके ज्ञान गर्व से प्रभावित हो गये हैं। इसलिए वे गोपियाँ को ज्ञानयोग संदेश देने के लिए तत्काल ब्रज में जाने के लिए तैयार हो जाते हैं।

व्याख्या - उद्धव श्रीकृष्ण की प्रेम जनित व्याकुलता को देखकर मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए और मन में अनेक आनन्द की अभिलाषाएँ बढ़ाने लगे। उद्धव ने सोचा कि कृष्ण अब मेरे योगमार्ग को सच्चा मार्ग समझने लगे हैं। इसलिए वे मुझे गोपियाँ के पास योग की शिक्षा देने के लिए भेज रहे हैं। अब उद्धव मन ही मन अपने ज्ञान योग के सिद्धान्तों की प्रशंसा करने लगे और सोचने लगे कि ये सांसारिक भोग मिथ्या और नाशवान है। अन्ततः उसने ब्रज जाने की कृष्ण की आज्ञा को शिरोधार्य कर लिया।

सूरदास जी कहते हैं कि जब स्वयं भगवान कृष्ण मुझे ज्ञान का उपदेश देने के लिए ब्रज भेज रहे हैं। फिर मैं इस सम्बन्ध में अन्य बात क्यों करूँ। अर्थात् मुझे अन्य बात न सोचकर तत्काल ब्रज की ओर प्रस्थान करना चाहिए।

विशेष -
1- श्रीकृष्ण की बातों को सुनकर उद्धव गर्वित हो गया। वह मन में ज्ञान गर्व को लेकर ब्रज जाने के लिए तैयार हो गया।
2 - इस पद मे अनुप्रास तथा असम्बन्ध अतिशयोक्ति अलंकार है।
3- इसमें सरल, सहज, बोधगम्य साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है।

उद्धव का ब्रज में दिखाई पडना

(6)

देखो नंदद्वार रथ ठाढो॥
बहुरि सखी सुफलकसुत आयो पर्यो संदेह उर गाढ़ो॥
प्रान हमारे तबहिं गयो लै अब केहि कारन आयो।
जानति हौं अनुमान सखी री ! कृपा करन उठि धायो।
इतने अंतर आय उपँगसुत तेहि छन दरसन दीन्हों॥
तब पहिचानि सखा हरिजू को परम सुचित तन कीन्हों॥
तब परनाम कियो अति रुचि सों और सबहि कर जोरे।
सुनियत रहे तैसेई देखे परम चतुर मतिभोरे॥
तुम्हरो दरसन पाय आपनो जन्म सफल करि जान्यो।
सूर ऊधो सों मिलत भयो सुख ज्यों झख पायो पान्यो॥ 15॥

शब्दार्थ - बहुरि = पुनः। सुफलक सुत = अक्रूर। गाढ़ो = अतिशय। इतने अन्तर = इसी बीच। उपंगसुत = उद्धव। सुचित = स्वस्थ अति रुचि साँ= प्रेमपूर्वक। झख = मछली। पान्यो = पानी।

प्रसंग - प्रस्तुत पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित व सूरदास रचित 'सूरसागर' के 'भ्रमरगीत' से उद्धृत है। कवि सूरदास जी कहते हैं कि उद्धव जी का रथ जब नंद के द्वार पर पहुँचा तो गोपियाँ को यह संदेह हुआ कि कहीं पुनः अक्रूर जी न आये हो क्योंकि एक बार वे कंस के कहने पर ब्रजमंडल आये थे और अपने साथ कृष्ण और बलराम को अपने रथ पर बैठाकर ले गये थे।

व्याख्या - गोपियाँ कहती है कि हे सखी! देखो तो नंद के दरवाजे पर एक रथ खड़ा है, लगता पुनः अक्रूरजी आ गये हैं, क्योंकि वे पहले भी एक बार आये थे और कृष्ण तथा बलराम को अपने रथ पर बैठाकर ले गये थे।

आज मेरे मन में इस प्रकार का बहुत बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया है। उस समय तो वे हमारे प्राण ले गये और किस लिए आये हैं- अब हमारे पास क्या है जो उसे लेने को पुनः पधारे है? हे सखी! मैं पुनः अनुभव कर रही हूँ कि शायद वे मेरे ऊपर इस बार कृपा करने को दौड़ पड़े हो। इस प्रकार से परस्पर गोपियाँ सोच रही थी कि उसी बीच तत्क्षण उद्धव ने आकर गोपियों को दर्शन दिया और गोपियाँ श्रीकृष्ण के मित्र उद्धव को पहचान कर मन और शरीर दोनों से प्रसन्न हुई भारतीय मर्यादा और शिष्टाचार के अनुरूप गोपियों ने उन्हें प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक सबों ने अपने हाथ जोड़े और कहने लगी जैसा हम लोग आपके सम्बन्ध में सुनती रही वैसा ही आपके बुद्धि में कुशल और हृदय से भोले-भाले रूप में देखा। तुम्हारे दर्शन पाकर हम लोग धन्य हो गयीं और अपने जन्म को सार्थक और सफल समझा। सफल इसलिए समझती है कि आप हमारे प्रियतम के मित्र है, सम्बन्ध भावना के कारण जो सुख उन्हें देखने पर मिलता था वही सुख आपको देखकर मिला। सूरदास जी कहते हैं कि उद्धव से मिलकर गोपियाँ को उसी प्रकार का सुख मिला जैसे पानी के बिना संतप्त मछलियाँ पानी पाकर सुखी हो जाती है। कृष्ण के वियोग ज्वाला में संतप्त गोपियाँ को उद्धव को देखने पर अपार सुख मिला।

विशेष -
(1) इस पद में माधुर्य गुण और विप्रलम्भ शृंगार का वर्णन है।
(2) इसमें दृष्टान्त तथा उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग हुआ है।
(3) 'ज्यों झख पानो पायो में उपमा अलंकार है।
(4) इस पद में सरल, सहज एवं साहित्यिक, ब्रजभाषा का प्रयोग है।

 

(7)

हमसों कहत कौन को बातें?

सुनि ऊधो ! हम समुझत नाहीं फिरि पूँछति हैं तातें॥

को नृप भयो कंस किन मारयो को बसुद्यौ सुत आहि?

यहाँ हमारे परम मनोहर जीजतु है मुख चाहि॥

दिनप्रति जात सहज गोचारन गोप सखा लै संग।

को ब्यापक पूरन अबिनासी, को बिधि बेद अपार?

सूर वृथा बकवाद करत हौ या ब्रज नंदकुमार॥ 18॥

शब्दार्थ - ताहैं = इसलिए। वसुधौ स्रत = वसुदेव के पुत्र आहि = है। जीजतु = जीवित रहती है। चाहि = देखकर। वासरगत = दिन समाप्त होने पर। पंग = स्तब्ध।

प्रसंग - प्रस्तुत पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित व सूरदास रचित 'सूरसागर के 'भ्रमरगीत सार' से उद्धृत है। इस पद में गोपियाँ उद्धव को बेवकूफ बना रही है। वे जानबूझकर उनसे पूछती है और कहती है कि जिनकी चर्चा तुम यहाँ कह रहे हो, वे कौन है?

व्याख्या - गोपियाँ कहती है कि हे उद्धव ! तुम हमसे किसकी बात कर रहे हो? हम तो जानती नहीं तुम क्या कर रहे हो हमारी समझ में तुम्हारी बातें नहीं आ रही हैं। इसलिये हम तुमसे पुनः पूछ रही हूँ कि मथुरा में कौन राजा हुआ और किसने कंस का वध किया अर्थात् तुम जो यह बात कर रहे हो कि श्रीकृष्ण मथुरा के राजा थे और उन्होंने कंस का वध किया, यह हमारे लिए भ्रमोत्पादक है। यह भी नहीं जानती कि वसुदेव का कौन पुत्र है? क्योंकि हमारे यहाँ तो कृष्ण विराजमान है और हम ऐसे मनोहर श्रीकृष्ण के मुख को नित्य प्रति देखकर जीती हूँ। उनका यह रूप हमें प्राणों से भी अधिक प्रिय है। वे आज भी नित्य अपने गोपमित्रों के साथ सहज भाव से वन में गाय चराने जाया करते हैं और दिन के समाप्त होने पर वे सन्ध्या समय वन से लौटते हैं और हमारे नेत्रों को स्तब्ध कर देते हैं- श्रीकृष्ण की ऐसी मुद्रा को देखकर स्तब्ध हो जाते हैं। हमारी समझ में नहीं आता कौन व्यापक, पूर्व अविनाशी है, कौन ब्रह्मा और वेद के लिए अपार है? सूरदास का कथन है कि गोपियाँ कहती है कि तुम व्यर्थ की बातें कर रहे हो। अरे इस ब्रज में तो नित्य नन्दकुमार का दर्शन होता है अर्थात् तुम जिस कृष्ण की चर्चा कर रहे हो, वे कोई और है, क्योंकि हमारे श्रीकृष्ण तो यहा सदैव विराजमान है।

विशेष -
1- इस पद में निर्गुण ब्रह्म का व्यंग्य गर्भित शैली में उपहास किया गया है।
2- सूरदास की वाग्विद्ग्धता का यह एक ज्वलन्त उदाहरण है।

 

(8)

गोकुल सबै गोपाल उपासी।
जोग अंत साधत जे ऊधो ते सब बस ईसपुर कासी॥
यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासी।
अपनी शीतलताहि न छाँड़त यद्यपि है ससि राहु गरासी॥
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेमभजन तजि करत उदासी।
सूरदास ऐसी को बिरहिन माँगति मुक्ति तजे गुनरासी॥ 21॥।

शब्दार्थ - सबै = सभी। गोपाल उपासी = गोपाल अर्थात् श्रीकृष्ण की उपासना करने वाले जोग = योग। जे = जो ते = वे। ईसपुर कासी = ईश्वर का नगर महादेव की नगरी काशी, तजि = त्यागकर। रस रासी = रस में पगी हुई, आनन्द में डूबी हुई। ससि = चन्द्रमा। गररसी = ग्रस लेता है। पठवत = भेजते हैं। उदासी = विरक्त बिरहिन = विरहिणी। गुनरासी = गुणों की राशि श्रीकृष्ण।

प्रसंग - उपरोक्त पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित 'भ्रमरगीत सार' से उद्धृत है। इस पद में श्रीकृष्ण भक्त कवि सूरदास ने गोपियों की विरहावस्था का भावपूर्ण चित्रण किया है। श्रीकृष्ण ने अपने सखा उद्धव को गोपियों के पास निर्गुण ब्रह्म की उपासना की शिक्षा देने के लिए भेजा है। इस पद में गोपियाँ उद्धव के ज्ञानमार्गी उपदेश को सुनकर कृष्ण के समक्ष श्रीकृष्ण के प्रति अपनी प्रेममार्गी भक्ति को श्रेष्ठ सिद्ध करती हुई श्रीकृष्ण की निष्ठुरता के बारे में पूछती है। वे उद्धव से कहती हैं -

व्याख्या - हे उद्धव ! यहाँ गोकुल में तो सभी नर-नारियाँ, गोप-गोपियाँ, गायों को पालने वाले श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं। जो साधक, व्यक्ति अष्टांग योग की साधना करते हैं वे तो महादेव की नगरी काशी में रहते हैं। (तत्कालीन युग में काशी शहर निर्गुण ब्रह्म की उपासना का केन्द्र था) यद्यपि श्रीकृष्ण ने हमें त्यागकर मथुरा में रहना आरम्भ कर दिया जिससे हम सभी अनाथ हो गई हैं फिर भी हम उन्हीं के चरणों के रस या आनन्द में डूबी हुई रहती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हम आज भी उनके चरणों का स्मरण करती हैं। गोपियाँ अपनी दशा समझाने के लिए चन्द्रमा का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि भले ही राहु चन्द्रमा को ग्रस लेता है फिर भी चन्द्रमा अपनी शीतलता नहीं छोड़ता है। उसी प्रकार श्रीकृष्ण के वियोग रूपी राहु ने भले ही हमारे जीवन को संकट से भर दिया है फिर हम उनके प्रति अपने प्रेम को नहीं त्याग सकतीं। वे श्रीकृष्ण के योग-संदेश की ओर संकेत करके पूछती हैं कि ऐसा हम गोपियों ने क्या अपराध किया था कि उन्होंने तुम्हारे माध्यम से प्रेममार्ग को त्यागकर विरक्ति का मार्ग अपनाने का संदेश लिखकर हम गोपियों के पास भेज दिया। सूरदास जी कहते हैं कि इस गोकुल में ऐसी कौन सी विरहिणी गोपी है जो गुणों की राशि श्रीकृष्ण को त्यागकर मुक्ति की कामना करती है। अर्थात् ऐसी कोई भी गोपी नहीं है जो श्रीकृष्ण को छोड़कर मुक्ति की कामना करे।

विशेष -

1- सूरदास ने गोपियों के माध्यम से ज्ञानमार्गी भक्ति की तुलना में प्रेममार्गी भक्ति की श्रेष्ठता को दर्शाया है।
2- 'हरि हम' 'पठवत प्रेमभजन' 'माँगति मुक्ति' में अनुप्रास अलंकार है।
3- अपनी --------- गरासी में दृष्टांत अलंकार है।
4- 'गोपाल' शब्द से परिकरांकुर अलंकार है।

 

(9)

जीवन मुँहचाही को नीको।
दरस परस दिनरात करति हैं कान्ह पियारे पी को॥
नयननि मुँदि मुँदि किन देखो बँध्यो ज्ञान पोथी को।
आछे सुंदर स्याम मनोहर और जगत सब फीको।
सुनौ जोग को का लै कीजै जहाँ ज्यान है जी को?
खाटी मही नहीं रुचि मानै सूर खूबैया घी को॥ 22॥

शब्दार्थ - मुँहचाही चेहती, प्रिय। नीको = अच्छा। दरस= दर्शन करना। परस = स्पर्श। नयननि = आंखों को। मूँदि- मूँद = बन्द करके पोथी = पुस्तक। आछे = अच्छे। जोग = योग का = क्या। ज्यान = हानि। जी = प्राण। महि = मट्ठा। खवैया = खाने वाला।

प्रसंग - प्रस्तुत पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित 'भ्रमरगीत सार से उद्धृत है। इस पद में कृष्ण भक्त कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण के प्रेम में पगी गोपियों को ज्ञानमार्गी उद्धव के योग को अस्वीकार करते दर्शाया है। गोपियाँ कुब्जा पर व्यंग्य कसती हैं तथा उद्धव से कहती हैं कि -

व्याख्या - हे उद्धव ! वास्तव में प्रियतम की चहेती का जीवन ही अच्छा है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण ने मथुरा जाकर गोपियों को विस्मृत कर दिया है और जब गोपियों को यह समाचार मिलता है कि उन्होंने कुब्जा का कूबड़ ठीक करके उसे अपने प्रेम का पात्र बना लिया है, तब उन्हें अपना जीवन व्यर्थ सा लगता है। वे नारी सुलभ ईर्ष्या के कारण कुब्जा पर व्यंग्य करती हुई कहती है कि अब तो श्रीकृष्ण की वह चहेती दिन-रात अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के दर्शन करती है और उनके स्पर्श का सुख पाती है, इसलिए उसका जीवन अच्छा है। हे उद्धव ! तुम हमें यह कहते हो कि ज्ञान योग की साधना में अपनी आंखों को बंद करके निर्गुण ब्रह्म को देखने का प्रयास करो परन्तु इससे हमें कोई सुख प्राप्त नहीं होने वाला है। तुम्हारी ये ध्यान लगाकर ब्रह्म को देखने की बातें कोरे पुस्तकीय ज्ञान के समान अव्यावहारिक हैं। निर्गुण ब्रह्म की तुलना में तो हमारे श्रीकृष्ण परम सुन्दर, मन को हरने वाले हैं और उनके सामने हमें यह सारा संसार फीका अर्थात् नीरस लगता है। हे उद्धव ! सुनो, हम तुम्हारे योग को लेकर क्या करें? तुम्हारी यह योग साधना स्वीकार करने में तो हमें अपने प्राणों की हानि होने का भय है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण का ध्यान, उनका प्रेम ही हमारे प्राण में समाया हुआ है। यदि हम उन्हें भुलाकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करेंगी तो श्रीकृष्ण का ध्यान हटते ही हमारे प्राण भी निकल जायेंगे। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! जो व्यक्ति घी खाता है उसे खट्टा मट्ठा अच्छा नहीं लगता। कहने का तात्पर्य यह है कि गोपियों ने श्रीकृष्ण के सुन्दर रूप घी के स्वाद को चख रखा है इसलिए उन्हें निर्गुण ब्रह्म रूपी खट्टा मट्ठा अच्छा नहीं लगता।

विशेष -
1- इस पद में सूरदास ने गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म की उपासना के स्थान पर सगुण ब्रह्म की उपासना की श्रेष्ठता सिद्ध की है।
2- 'पियारे पी', 'सुन्दर स्याम', 'जहाँ ज्यान' में अनुप्रास अलंकार है।
3- 'मूंदि-मूंदि' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
4- 'खाटी ---------- घी को में अर्थान्तरन्यास अलंकार है।

 

(10)

जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहैं।
यह ब्योपार तिहारो ऊधो एसोई फिरि जैहै॥
जापै लै आए हौ मधुकर ताके उर न समैहै॥
दाख छाड़ि कै कटुक निबौरी को अपने मुख खैहैं?
मूरी के पातन के केना को मुक्ताहल दैहै।
सूरदास प्रभु गुनहिं छाँड़िकै को निर्गुन निरबैहै? ॥24॥

शब्दार्थ - ठगौरी = ठगने का सौदा, धोखा देने वाली चीज। तिहारौ = तुम्हारा। एसोई = ऐसी ही। जापै = जिसके लिए। उर = हृदय। दाख= मीठे अंगूर। कटुक = कड़वी। नीबौरी = नीम का फल, निबौली। मूरी = मूली। पातन = पत्ते। केना = वह व्यापार जिसमें मूल्य के अनुरूप वस्तुओं का आदान-प्रदान होता है, इसमें धन का प्रयोग नहीं होता। मुक्ताहल = मोती। गुनहि = गुणों से युक्त। निरबैहै = निर्वाह करेंगे ध्यान धरेंगे।

प्रसंग - प्रस्तुत पद आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सम्पादित व सूरदास द्वारा रचित 'भ्रमरगीत' से अवतरित है। कृष्ण भक्त कवि सूरदास ने इस पद में गोपियों के माध्यम से ज्ञान, योग-साधना आदि का उपदेश देने हेतु मथुरा से आये उद्धव के निर्गुण व ब्रह्म व उसकी योग साधना पर प्रेममार्गी भक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध की है। इस पद में गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम को दर्शाती हुई उद्धव से कहती है कि -

व्याख्या - हे उद्धव ! तुम्हारा यह योग रूपी धोखा देने वाला सौदा यहाँ ब्रज में नहीं बिक सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि गोपियों को श्रीकृष्ण की उपासना के समक्ष निर्गुण ब्रह्म की उपासना करना घाटे का सौदा प्रतीत होता है। इसलिए वे उद्धव से कहती हैं कि तुम जो निर्गुण ब्रह्म, योग साधना रूपी माल यहाँ बेचने के लिए लाये हो वह यहाँ से वैसे ही वापस चला जायेगा, अर्थात् तुम्हारी योग साधना सम्बन्धी उपदेश न तो कोई सुनेगा और न ही ग्रहण करेगा। हे उद्धव ! तुम जिन लोगों के लिए यह माल यहाँ पर लाये हो, उन लोगों के मन में यह कभी नहीं समायेगा अर्थात् यहाँ ब्रज में कोई गोप-गोपी तुम्हारी निर्गुण ब्रह्म सम्बन्धी बातों को अपने हृदय में धारण नहीं करेगा। अब तुम्ही बताओ इस संसार में ऐसा कौन मूर्ख है जो मीठे अंगूरों को छोड़कर कड़वी निबौली खाएगा। अर्थात् गोपियों के लिए श्रीकृष्ण का प्रेम मीठे अंगूर के समान है जबकि उद्धव का योग साधना का उपदेश कड़वी निबौली के समान है और गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रेम को भूला कर निर्गुण ब्रह्म को उपासना नहीं कर सकतीं। गोपियाँ उद्धव से पूछती हैं कि हे उद्धव ! तुम ही बताओ कि इस संसार में ऐसा कौन मूर्ख व्यक्ति होगा जो मूली के पत्तों को प्राप्त करने के लिए मोती देना स्वीकार करेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि गोपियों के लिए श्रीकृष्ण का प्रेम मोती के समान मूल्यवान है जबकि उनकी दृष्टि में उद्धव का निर्गुण ब्रह्म का उपदेश मूली के पत्तों के समान मूल्यहीन है अतः वे अपने मूल्यवान मोती के बदले में मूली के पत्ते प्राप्त करने की मूर्खता नहीं करना चाहती। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहने लगी कि हे उद्धव ! तुम्हीं बताओ कि हम गुणों के भंडार श्रीकृष्ण को छोड़कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने से कैसे निर्वाह करेगी? अर्थात् उनके लिए निर्गुण ब्रह्म की उसना व्यर्थ है।

विशेष -
1- इस पद में कवि सूरदास ने व्यापार व विनिमय के प्रसंग के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण ब्रह्म की महत्ता स्थापित किया है।
2- 'निर्गुण निरबै' में अनुप्रास अलंकार है।
3- 'दाख - - खैहे' तथा 'मूरी ------ देहै' में दृष्टांत अलंकार है।
4- 'गुन' व 'निर्गुन' में श्लेष अलंकार है।

 

(11)

हमतें हरि कबहूँ न उदास।
राति खवाय पिवाय अधररस सो क्यों बिसरत ब्रज को बास॥
तुमसों प्रेमकथा को कहिबो मनहुँ काटिबो घास।
बहिरो तान स्वाद कह जानै, गूँगो बात मिठास।
सुनु री सखी बहुरि फिरि ऐहैं वे सुख बिबिध बिलास।
सूरदास ऊधो अब हमको भयो तेरहों मास॥ 30॥

शब्दार्थ - हरि = श्रीकृष्ण अधररस = होठों का रसपान बिसरत = भूल सकते हैं। मनहुँ मानो। बहिरो = बहरा। काटिबो = काटना। ऐहैं = आवेंगे। तेरहों मास = अवधि बीत गई, बहुत दिन हो गये।

व्याख्या - हे उद्धव ! हम गोपियों को पूरा विश्वास है कि श्रीकृष्ण हमसे कभी भी उदासीन नहीं हो सकते अर्थात् आप जो कह रहे हैं कि अभी श्रीकृष्ण को वापस गोकुल आने का अवकाश नहीं है, वह बात सत्य नहीं है। जिस ब्रज में हम गोपियों ने उन्हें दिन-रात मक्खन खिलाया, अपने अधरों का रसपान कराया उस ब्रज को श्रीकृष्ण निश्चय ही भुला नहीं सकेंगे। हे उद्धव ! हम तुमसे अपने श्रीकृष्ण के साथ हुए प्रेम-प्रसंगों अथवा प्रेम कथा को कहना तो मानो घास काटने के समान है। कहने का तात्पर्य यह है कि गोपियाँ उद्धव को अपने प्रेम प्रसंग सुनाने के लिए उपयुक्त मात्र मानती ही नहीं है क्योंकि वे तो प्रेम को छोड़ शुष्क ज्ञान के पक्षधर हैं। अतः यहाँ पर उद्धव पर व्यंग्य क्रिया गया है। गोपियाँ कहती हैं कि जिस प्रकार बहरा व्यक्ति संगीत की तानों के उतार चढ़ाव को समझने में असमर्थ है, गूँगा व्यक्ति प्रेम रस में डूबी बातों को कहने व सुनने में असमर्थ है उसी प्रकार उद्धव भी हमारे और श्रीकृष्ण के प्रेम को समझने में असमर्थ हैं। वे गोपियाँ परस्पर एक-दूसरे का ढाढस बनाती हुई कहती हैं कि हे सखी! मेरी बात ध्यान लगाकर सुनो ! शीघ्र ही हमारे श्रीकृष्ण के साथ भोग-विलास के सुखमय दिन लौटकर वापस आने वाले हैं। अर्थात् श्रीकृष्ण शीघ्र ही मथुरा छोड़ कर ब्रज में आयेंगे। सूरदास जी कहते हैं कि एक गोपी श्रीकृष्ण के वियोग को याद करके कहने लगी कि हे उद्धव ! अब तो श्रीकृष्ण को मथुरा गये तेरह महीने की अवधि बीत गई है, अब तो हमारी प्रतिक्षा की घड़ियाँ शीघ्र ही समाप्त होने वाली हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण ने वापस लौटने की जो अवधि बतायी थी, अब वह समाप्त हो रही है और हमें पुनः उनके दर्शन होंगे।

विशेष -
1- इस पद में सूरदास जी ने गोपियों के प्रेम व उनकी विरहावस्था का चित्रण किया है।
2- 'हमतें हरि 'बिसरत ब्रज' 'विविध विलास' में अनुप्रास अलंकार है।
3- 'तुमसो ---------- घास में उत्प्रेक्षा अलंकार है।

 

(12)

लरिकाई को प्रेम, कहो अलि, कैसे करिकै छूटत?
कहा कहौं ब्रजनाथ चरित अब अंतरगति यों लूटत॥
चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंद धुनि गावत।
नटवर भेस नंदनंदन को वह बिनोद यह बन ते आवत।
चरनकमल की सपथ करति हौं यह संदेस मोहिं विष सम लागत।
सूरदास मोहि निमिष न बिसरत मोहन मूरति सोवत जागत॥ 34॥

शब्दार्थ - लरिकाई = लड़कपन, बचपन। अलि = भँवरा। ब्रजनाथ = श्रीकृष्ण। अन्तरगति = चित्त की वृत्ति। चितवनि = दृष्टि। धुनि = धुन। नटवर = नर्तक। सपथ = सौगन्ध। निमिष = क्षण। चरन कमल = कमल के समान चरण वाले। सोबत जागत = सोते जागते। बिसरत = भूली जाती।

प्रसंग - प्रस्तुत पद सूरदास रचित 'भ्रमरगीत सार में से लिया गया है। श्रीकृष्ण मथुरा से गोपियों का कुशल क्षेम जानने व उन्हें निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देने के लिए अपने सखा उद्धव को गोकुल भेजते हैं। परन्तु श्रीकृष्ण के प्रेम में पगी गोपियों को यह उपदेश तनिक भी नहीं सुहाता। कृष्ण के साथ गोपिकाओं का सान्निध्य व प्रेम बचपन से ही है, अतः प्रगाढ़ है। वे किसी भी मूल्य पर उसे नहीं छोड़ सकती। इसी तथ्य को वाणी देते हुए वे कहती है

व्याख्या - हे भ्रमर (उद्धव) लड़कपन से चल रहा कृष्ण से हमारा प्रेम भला कैसे छूट सकता है? अर्थात् हमारा लड़कपन अथवा बचपन तो श्रीकृष्ण के साथ ही व्यतीत हुआ है अतः अब हम श्रीकृष्ण से जुड़ी यादों को बिल्कुल नहीं भूल सकतीं। अब हम कैसे कहें कि ब्रज के स्वामी श्रीकृष्ण ने हमारे मन की वृत्ति को लूट लिया है अर्थात् कृष्ण का सजीला व्यक्तित्व हमारी चित्तवृत्ति को बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। उनकी चंचल चाल, आकर्षक दृष्टि, मोहक मुस्कान, मंद व मधुर धुन में बाँसुरी बजाना सब कुछ हमें बहुत भाता है। इसी प्रकार गउएँ चराने के बाद नर्तक के रूप में हास-परिहास करते हुए वन से घर को लौटते समय की उनकी छवि अतीव मोहक होती है। हम श्रीकृष्ण के कमल रूपी चरणों की कसम खाकर कहती है कि हमें तुम्हारे द्वारा दिया गया ज्ञान ध्यान का उपदेश विष के समान प्रतीत होता है। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ कहती है कि उन्हें कृष्ण की चारु मूर्ति सोते-जागते एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं होती।

विशेष -
1- प्रस्तुत पद में गोपियों की एकान्तिक भक्ति की पराकाष्ठा दृष्टिगत होता है। मनोवैज्ञानिक रूप से भी यह निर्विवाद सत्य है कि बचपन से विकसित प्रेम बन्धन अत्यन्त प्रगाढ़ होता है।
2- कृष्ण के सौन्दर्य का गत्यात्मक रूपांकन प्रशंसनीय है।
3- प्रथम पंक्ति में प्रश्नालंकार, पांचवीं पंक्ति के अन्तर्गत 'चरन कमल' में रूपक तथा 'विष सम लागत' में उपमा अलंकार का सटीक प्रयोग किया गया है।

 

(13)

हरि काहे के अंतर्जामी?
जौ हरि मिलत नाहिं यहि औसर, अवधि बातवत लामी।
अपनी चोप जाय उठि बैठे और निरस बेकामी?
सो कह पीर पराई जानै जो हरि गरुडागामी॥
आई उधर प्रीति कलई सी जैसे खाटी आमी।
सूर इते पर अनख मरति हैं ऊधो, पीवत मामी॥37॥

शब्दार्थ - अंतर्जामी = अन्तर्यामी, मन की बात जानने वाला। औसर = अवसर। लामी = लम्बी। चोप = चाह, चाव लगाव। निरस = नीरस। बेकामी = निष्काम। पीर = पीड़ा। गरुड़ागामी = गरुड़ की सवारी करने वाले। उधारि = स्पष्ट होना, प्रत्यक्ष होना। कलई = बर्तनों पर लगाई जाने वाली एक धातु। आमी = कच्चा आम। अनख = कुदंन। पीवत मामी = किसी बात को पी जाना, साफ मना करना।

प्रसंग - प्रस्तुत पद सूरदास द्वारा रचित 'सूरसागर' के 'भ्रमरगीत सार से अवतरित है। मथुरा पहुँचने के पश्चात् श्रीकृष्ण गोपियों की कुशल क्षेम जानने के लिए व उन्हें निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देने के लिए अपने सखा उद्धव को गोकुल भेजते है। उद्धव का उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण के प्रेम में पगी गोपियाँ कभी तो निर्गुण ब्रह्म का कभी योग साधना का उपहास उड़ाती हैं तो कभी श्रीकृष्ण व कुब्जा पर व्यंग्य करती हैं। अवतरित पद में सूरदास ने गोपियों को श्रीकृष्ण के प्रति अपनी खीझ उतारते दिखाया है गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि

व्याख्या - हे उद्धव ! आप तो कहते हैं कि हरि सबके मन की बात जानने वाले हैं। परन्तु जब वे हमारे ही मन की बात नहीं जान सकते तो फिर वे कैसे अंतर्यामी हुए? अर्थात् उन्हें हम अन्तर्यामी नहीं मानती। यदि वे अन्तर्यामी होते तो क्या हमारी मनोदशा देखकर भी इस अवसर पर हमसे मिलने के लिए नहीं आते अर्थात् अवश्य ही आते। इसके विपरीत वे तो अपने मिलने की अवधि भी लम्बी बता रहे हैं अर्थात् वे हमसे अभी मिलना भी नहीं चाहते। एक ओर तो वे कुब्जा की चाह में उधर - मथुरा जाकर बैठ गये हैं और दूसरी ओर हमारे पास उन्होंने निष्काम भाव से भक्ति करने का नीरस संदेश भेज दिया है। सच बात तो यह है कि जो स्वयं ही गरुड़ पर सवारी करता हो वह दूसरों के दुःख-दर्द को क्या समझेगा। श्रीकृष्ण के मथुरा जाने व वहाँ पर कुब्जा के प्रेम में बंध जाने के पश्चात् अब हमारे सामने श्रीकृष्ण के प्रेम की पोल उसी प्रकार खुल गयी है जिस प्रकार खट्टी आमी को कलई पर रगड़ने से बर्तन की असलियत सामने आ जाती है। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहने लगी कि हे उद्धव ! हम तो श्रीकृष्ण की इस बात पर कुढ़ कुढ़ कर मरी जा रही है कि वहाँ जाकर श्रीकृष्ण ने हमारे प्रेम के सम्बन्ध की सारी बातों को पी लिया है अर्थात् मथुरा जाने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने एक भी बार गोपियों के प्रति अपने प्रेम को प्रकट नहीं किया है।

विशेष -
1- प्रस्तुत पद में सूरदास ने गोपियों के मनोभावों को उद्घाटित करते हुए उन्हें श्रीकृष्ण की निष्ठुरता पर दुखी होते दर्शाया है।
2- प्रथम पंक्ति में वक्रोक्ति अलंकार है।
3- 'पीर पराई' में अनुप्रास अंलकार है।

 

(14)

अँखियाँ हरि दरसन की भूखी।
कैसे रहें रूपरसराची ये बतियाँ सुनि रूखी॥
अवधि गनत इकटक मग जोवत तब एतो नहिं झूखी।
अब इन जोग सँदेसन ऊधो अति अकुलानी दूखी॥
बारक वह मुख फैरि दिखायो दुहि पै पिवत पतूखी।
सूर सिकत हठि नाव चलायो ये सरिता हैं सूखी॥42॥

शब्दार्थ - हरि दरसन = श्रीकृष्ण का दर्शन। रूपरसराची = श्रीकृष्ण का दर्शन। रूपरसराची = कृष्ण के सौन्दर्य के रस में पगी हुई। झूखी = संतप्त। इकटक = बिना पलक झपकाए। मग = रास्ता। जोवत = देखती है। अकुलानी = बेचैन। बारक = एक बार। दुहि = दूहते हुए। पै = दूध। पतूखी = पत्ते का दोना। सिकत = रेत। सरिता = नदी।

प्रसंग - प्रस्तुत पद सूरदास द्वारा रचित 'सूरसागर' के 'भ्रमरगीत सार' से उद्धृत है। मथुरा जाने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने गोपियों का कुशल क्षेम जानने तथा उन्हें निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश देने के लिए अपने सखा उद्धव को गोकुल भेजा। उद्धव के मुख से योग साधना का उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबी गोपियों ने भांति-भांति के तर्क देकर उनके विचारों का खंडन किया। अवतरित पद में गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम को दर्शाती हुई उद्धव से कहती हैं कि -

व्याख्या - हे उद्धव ! हमारी आंखें तो अब केवल श्रीकृष्ण के दर्शनों की भूखी हैं अर्थात् हम तो केवल अपने प्रिय श्रीकृष्ण के सुन्दर मुख को देखना चाहती हैं, इसके अतिरिक्त हमें और किसी भी चीज की कामना नहीं है। हम सभी गोपयों की आंखें तो श्रीकृष्ण के सौन्दर्य रस में पगी हुई हैं अतः हम तुम्हारी योग साधना, निर्गुण ब्रह्म से जुड़ी शुष्क ज्ञान की बातें सुनकर कैसे जीवित रह सकती हैं? अर्थात् हमें तुम्हारी ये बातें तनिक भी अच्छी नहीं लगती। जब से श्रीकृष्ण हमें छोड़कर यहाँ से मथुरा गये हैं तब से हमारी ये आंखें उनके वापस आने की अवधि को गिनती हुई बिना पलक झपकाए हुए उस मार्ग की ओर देखते हुए इतनी दुखी नहीं हुई थी जितनी कि तुम्हारी योग साधना के संदेश की बातें सुनकर अत्यन्त व्याकुल होकर अब दुखी हुई हैं। कहने का तात्पर्य है कि गोपियों को श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा करने में उतना कष्ट नहीं हुआ जितना कि उनके द्वारा भेजे गये योग-संदेश को सुनकर दुख हुआ है। हमें तो श्रीकृष्ण के उस मुख के केवल एक बार फिर से दर्शन करवा दो जब वे पत्ते के दोने में दूध दुहकर पीते थे। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहने लगीं कि हे उद्धव ! तुम तो इन सूखी हुई नदियों के रेत में व्यर्थ ही हठ करके नाव चलाने का प्रयास कर रहे हो। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण के वियोग में गोपियों के मन मस्तिष्क की सोच विचार करने की सारी क्षमता समाप्त हो गई है और उनकी दशा अब सूखी नदी के समान हो गई है। जिस प्रकार सूखी नदी के रेत में नाव नहीं चलाई जा सकती, उसी प्रकार गोपियों के हृदय में निर्गुण ब्रह्म के प्रति कोई श्रद्धा, जिज्ञासा उत्पन्न नहीं की जा सकती।

विशेष -
(1) इस पद में सूरदास जी ने गोपियों के नेत्र को आधार बनाकर उनके श्रीकृष्ण प्रेम को प्रभावपूर्ण चित्रण किया है।
(2) 'अति अनुकलानी' 'सूर सिक्त' में अनुप्रास अलंकार तथा पै पिवत पतूखी में वृत्यानुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।
(3) अंतिम पंक्ति में उदाहरण अलंकार है।
(4) 'हरि' शब्द में परिरांकुर अलंकार है।

 

(15)

काहै को गोपीनाथ कहावत?
जो पै मधुकर कहत हमारे गोकुल काहे न आवत?
सपने की पहिचानि जानि के हमहिं कलंक लगावत।
जो पै स्याम कूबरी रीझे सो बिन नाम धरावत?
ज्यों गजराज काज के औसर और दसन दिखावत।
कहन सुनन को हम हैं ऊधौ सूर अंत बिरमावत। 45॥

शब्दार्थ - गोपीनाथ = गोपियों का स्वामी। सपने की पहिचानि = सपने की जान पहचान। कूबरी = कुब्जा। औसर = अवसर। दसन = दांत अंत = अन्त, अन्यत्र। बिरमावत = समय व्यतीत करते हैं, देर लगाते हैं।

प्रसंग - प्रस्तुत पद सूरदास द्वारा रचित 'सूरसागर' के 'भ्रमरगीत सार से अवतरित है। मथुरा जाने के पश्चात् श्रीकृषण ने गोपियों की कुशल क्षेम पूछने तथा उन्हें निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देने के लिए अपने सखा उद्धव को गोकुल भेजा। वहाँ पर श्रीकृष्ण के प्रेम में पगी गोपियों को यह संदेश बहुत ही बुरा लगा और कुब्जा का संदेश सुनकर तो वे सौतिया डाह से भर गईं। अवतरित पद में सूरदास जी ने गोपियों को श्रीकृष्ण के निष्ठुर व्यवहार व कुब्जा के प्रति अपने ईर्ष्या-भाव को अभिव्यक्त करते हुए दर्शाया है। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि -

व्याख्या - हे उद्धव ! वैसे तो सारा संसार श्रीकृष्ण को गोपीनाथ अर्थात् गोपियों के स्वामी कहकर पुकारता है परन्तु मथुरा जाने के बाद वे वापस वहाँ से लौटते ही नहीं हैं। अतः उन्हें कहना कि जब उन्हें गोपियों के साथ नहीं रहना तो फिर स्वयं गोपीनाथ क्यों कहलाते हो अर्थात् अपने इस नाम का त्याग कर दो। हे मधुकर ! यदि वे हमारे ही स्वामी अर्थात् गोपीनाथ कहलाना चाहते हैं तो फिर वे गोकुल क्यों नहीं आते। यदि श्रीकृष्ण हमारे साथ केवल सपने की जान-पहचान बताते हैं अर्थात् वे हमारे प्रेम को क्षणिक या अस्थायी बताते हैं तो फिर हमें क्यों कलंक लगाते हैं कि वे हमारे स्वामी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि श्रीकृष्ण स्वयं को गोपीनाथ कहलाना चाहते हैं तो उन्हें शीघ्र मथुरा छोड़कर गोकुल आ जाना चाहिए और यदि वे हमारे प्रेम को क्षणिक प्रेम बताते हैं तो उन्हें 'गोपीनाथ' कहलाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि फिर इससे हमारे नाम पर कलंक लगता है कि इन गोपियों का पति अब उनके साथ नहीं रहता। यदि श्रीकृष्ण मथुरा में कुब्जा पर इतने ही आसक्त हो गये हैं कि अब गोकुल नहीं आना चाहते तो अपना नाम गोपीनाथ से बदलकर कुब्जानाथ क्यों नहीं रख लेते। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कहने लगीं कि हे उद्धव ! जिस प्रकार हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और होते हैं, ठीक उसी प्रकार श्रीकृष्ण का प्रेम व्यवहार है। उनके कहने सुनने के लिए तो हम गोपियाँ ही उनकी प्रेमिकाएँ हैं जबकि वे प्रेम में अपना समय कहीं अन्यत्र स्थान पर व्यतीत करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि उनका दिखावटी प्रेम तो हम गोपियों से हैं जबकि वे सच्चा प्रेम कुब्जा से करते हैं।

विशेष -
(1) इस पद में कवि सूरदास ने गोपियों के मन में कुब्जा के प्रति सौतियाडाह श्रीकृष्ण के निष्ठुर व्यवहार से जनित वेदना भाव को सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया है।
(2) 'औसर औरे', 'दसन दिखावत' में अनुप्रास अलंकार है।
(3) ज्यों ------- दिखावत' में दृष्टात अलंकार है।
(4) 'स्याम' शब्द में परिकरांकुर अलंकार है।

 

(16)

हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नन्दनदन सों उर यह दृढ़ कर पकरी॥
जागत, सोबत, सपने सौंतुख कान्ह-कान्ह जफरी।
सुनतहि जोग लगत ऐसी अलि! ज्यों करुई फफरी॥
सोई व्याधि हमै लै आए देखी सुनी न फरी।
यह तौं सूर तिन्है लै दीजै जिनके मन चकरी॥

शब्दार्थ - हारिल = पक्षी, वच = वचन, सौतुख = प्रत्यक्ष, उर = हृदय, व्याधि = रोग / बीमारी, चकरी = चंचल, जकरी = जपना / रटना।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद रामचन्द्र शुक्ल जी द्वारा सम्पादित 'भ्रमर गीत सार से उद्धृत है। सूरदास विरचित 'भ्रमरगीत प्रसंग से सम्बन्धित इस पद में गोपियों की कृष्ण के प्रति अनन्य निष्ठा का प्रदर्शन प्रस्तुत हुआ है।

प्रसंग - उद्धव के निर्गुण ब्रह्म सम्बन्धी उपदेशों से खिन्न गोपियाँ कृष्ण के प्रति एकनिष्ठता का प्रदर्शन करते हुए अपने वाक् चातुर्य द्वारा ज्ञान में पारंगत उद्वव को निरुत्तर कर देती हैं। वे अपने प्रेम की तुलना हारिल पक्षी से करते हुए श्री कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पित होने का भाव व्यक्त करती हैं।

व्याख्या - सूर कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव को समझाने का प्रयास करते हुए कहती हैं कि जिस प्रकार हारिल पक्षी कहीं भी किसी दशा में हो वो सहारे हेतु कोई न कोई लकड़ी अथवा तिनका पकड़े रहता है उसी प्रकार हम गोपियाँ भी निरन्तर कृष्ण के ध्यान में निमग्न रहती हैं। हमने अपने मन, वचन और कर्म के द्वारा नन्द के पुत्र श्री कृष्ण रूपी लकड़ी (आश्रय) को दृढ़ता के साथ अपने हृदय में धारण कर लिया है अर्थात् पकड़ लिया है। गोपियों का आशय यह है कि श्री कृष्ण के रूप और प्रेम की माधुरी उनके हृदय में स्थिर होकर रह गई है और उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई है। गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनका मन जागते, सोते स्वप्नावस्था में तथा प्रत्यक्ष रूप में अर्थात् सभी दशाओं में श्री कृष्ण के नाम का रटन (स्मरण) करता रहता है। वे उद्धव को संबोधित कर कहती हैं कि हे भ्रमर ! तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म सम्बन्धी ज्ञान के उपदेश को सुनकर हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे किसी ने हमारे मुख में कड़वी ककड़ी रख दी हो (अर्थात् तुम्हारी नीरस ब्रह्म चर्चा हमें कड़वी ककड़ी की भाँति अरुचिकर प्रतीत हो रही है। हे उद्धव तुम ये निर्गुण ब्रह्म व योग के रूप में हमारे लिए ऐसी अनोखी वस्तु ले आए हो जिसे हमने पहले न तो देखा है और न उसकी चर्चा सुनी है। तुम्हारी इस योग रूपी बीमारी से हम पूरी तरह से अपरिचित हैं। अतः तुम्हारे लिए यही श्रेष्ठ होगा कि तुम यह ब्याधि उन लोगों को प्रदान करो जिनका मन चकरी की तरह चंचल और अस्थिर हो। वे ही इसका पूर्ण उपयोग कर सकेंगे। भाव यह है कि गोपियाँ अत्यन्त चतुराई के साथ उद्धव के सम्मुख यह जता देती हैं कि उनके हृदय में तो श्रीकृष्ण का प्रेम ही दृढ़ता के साथ स्थिर है और वहाँ निर्गुण ब्रह्म व योग के लिए कोई स्थान शेष नहीं है उद्धव के योग व उपदेश को अस्थिर व चंचल प्रकृति वाले लोग ही स्वीकार कर सकते हैं क्योंकि उनकी धारणा व विश्वास बदलते रहते हैं। गोपियों का मन तो कृष्ण के प्रति पूर्ण एकाग्रता के साथ समर्पित है अतः यहाँ उनकी दाल नहीं गल पाएगी।

विशेष -
1. इस पद में गोपियों की अनन्य निष्ठा व प्रेम का चित्रण हुआ है।
2. सूर निर्गुण ब्रह्म की परोक्ष अवहेलना करते हुए उन्हें चंचल व अस्थिर चित्त वालों हेतु उचित स्वीकार करते
3. सुनतहि .... ककरी में अनुप्रास अलंकार है। उदाहरण, उल्लेख, रूपक, अनुप्रास अलंकार है। रस- माधुर्य
हैं।
4. गोपियों ने हारिल पक्षी का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने प्रेम की दृढ़ता का वर्णन किया है।

 

(17)

काहे को रोकत मारग सूघो?
सुनहू मधुप ! निर्गुन फंटक तें राजपथ क्यो रुँघो?
कै तुम सिखै पठाए कुब्जा, फै कही स्यामधन जू द्यौं?
वेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ी जुबतिन जोग कहूँ धो?
ताको कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधो।
सूर मूर अक्रूर गए लै व्याज निवेरत ऊधो॥ 62॥

शब्दार्थ - सूधो = सीधा, सरल। रूधो = रोकते हो, सुम्रति = स्मृति, जुवतिन = युवतियाँ, परेखौ = बुरा मानन, निवेरत = उगाही करना, वसूलना।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - गोपियाँ उद्धव द्वारा उन्हें श्री कृष्ण के प्रेम मार्ग से विचलित किए जाने के प्रयास पर खीझते हुए उद्धव से उन्हें टोकते हुए प्रेम मार्ग में बाधक न बनने की सलाह दे रही है।

व्याख्या - गोपियाँ उद्धव को उलाहना देते हुए कहती हैं कि हे उद्धव तुम हमें प्रेम के मार्ग पर आगे बढ़ने से क्यों रोक रहे हो? तुम योग मार्ग का उपदेश देकर हमारे मार्ग में बाधा मत उत्पन्न करो। हे मधुप। हमारी बात सुनो। राज पथ के समान प्रशस्त, अकण्टक, बाधा रहित प्रेम मार्ग को अवरुद्ध करते हुए हमें कंटकपूर्ण तथा कष्टदायक योग मार्ग की ओर चलने की ओर क्यों विवश कर रहे हों। अनेकानेक कठिन साधनाओं के कारण तुम्हारा बताया गया योग मार्ग हमारे लिए असाध्य है। अतः हम अपने सीधे सादे सरस प्रेम मार्ग को त्याग कर उसे अपनाने में असमर्थ हैं। हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि कुब्जा ने हमारे प्रति अपने ईर्ष्या भाव के कारण ही तुम्हें पढ़ा लिखा कर (बहका कर) हमारे पास भेज दिया है जिससे हम तुम्हारी बातों में आकर कृष्ण प्रेम से विमुख हो जाएँ। हम योग के कठिन मार्ग पर भटकती रहें और कुब्जा कृष्ण के प्रेम का एकांकी भोग कर सके। उसे हर क्षण यही भय सताता रहता है कि कहीं कृष्ण पुनः गोपियों की सुध न कर बैठे और उसे त्याग कर पुनः वृन्दावन लौट आएँ। अर्थात् उसे अपने प्रेम पर विश्वास नहीं है जबकि हमारे मन में प्रेम पूर्णरूपेण दृढ़ है। इसी कारण श्री कृष्ण के साथ निर्भय क्रीड़ा विहार करने की लालसा में ही उसने तुमसे यह सन्देश हमारे पास भिजवाया है।

हे उद्धव! वेद, पुराण, स्मृतियों आदि सम्पूर्ण धार्मिक ग्रन्थों का सार भी यही कहता है कि कोमल स्त्रियों के योग शिक्षा देना असंगत है। हम युवतियाँ तो प्रेम की कोमल भावना से अनुप्राणित हैं हमें क्या योग शोभा देगा? परन्तु हे उद्धव अब हम तुम्हारे जैसे दूध और छाँछ में अन्तर न कर पाने वाले अज्ञानी की बात का भला क्या बुरा माने। अर्थात् हमारे कृष्ण दुग्ध के समान सर्वगुण सम्पन्न तथा श्रेष्ठ हैं और निर्गुण ब्रह्म छाँछ के समान व्यर्थ तथा सारहीन वस्तु हैं। हे उद्धव ! हमारा मूलधन (कृष्ण) तो पहले ही अकूर ले जा चुके हैं अब तुम यहाँ क्या हमसे ब्याज उगाहने आए हो? गोपियाँ प्रकारान्तर से कह रही है कि श्रीकृष्ण को तो पहले ही उनसे दूर कर दिया गया है, अब ऊधो उनकी स्मृति (ब्याज) को भी गोपियों से छीनने का प्रयास कर रहे हैं। (इसी कारण गोपियों को ब्रह्म का उपदेश दिया जा रहा है।) गोपियाँ अत्यंत आवेश में आकर उधौ को कड़े शब्दों में समझाते हुए ब्रह्म एवं योग का खंडन कर रही हैं।

विशेष -
1. कवि सून ने प्रेम मार्ग की श्रेष्ठता व निर्गुण ब्रह्म की दुरूहता व असाध्यता की परस्पर तुलना प्रस्तुत की है।
2. प्रेम मार्ग व योग मार्ग की तुलना में प्रेम मार्ग को श्रेष्ठ सिद्ध किया है।
3. सूर -------- ऊधौ' पंक्ति में पैनी व्यंग्यात्मकता का प्रदर्शन हुआ है।
4. रूपक, रूपकातिशयोक्ति, लोकोक्ति, उपमा आदि अलंकारों का प्रयोग है।
5. समस्त पद में 'उग्रता' नामक संचारा भाव व्याप्त है।

(18)

प्रीत करि दीन्हीं गरे छुरी।
जैसे बधिक चुगाय कपट कन पाछे करत बुरी॥
मुरली मधुर चेप कर काँपो मोरचद्र ठटवारी।
बक बिलोकनि लूक लागि बस सकी न तनहिं सम्हारी॥
तलफत छांडि चले मधुबन को फिरि कै लई न सार।
सूरदास वा कलत-तरोवर फेरि न बैठि डार॥

शब्दार्थ - कन = अनाज के दाने = चुग्गा, टवारी = टरिया, लूक = अग्नि, कलप = सरोवर =  कलपवृक्ष, कापी = कम्पा।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में गोपियाँ अत्यन्त मार्मिकता के साथ श्रीकृष्ण के द्वारा प्रेम में छले जाने की पीड़ा को अभिव्यक्त कर रही हैं। प्रेम में आकण्ठ डूबी गोपियों को कृष्ण द्वारा निर्गुण ब्रह्म का सन्देश भिजवाना विश्वासघात प्रतीत होता है।

व्याख्या - गोपियाँ उद्धव के समक्ष अपने अन्तरमन की वेदना प्रकट करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव ! श्रीकृष्ण ने हमारे मन में अपने प्रति प्रेम उत्पन्न करके हमारे गले पर धुरी चला दी है (अर्थात् श्रीकृष्ण के प्रेम के घातक प्रभाव ने हमें अत्यंत पीड़ा से भर दिया है।) उन्होंने हमारी भावनाओं को आहत करके (निर्गुण ब्रह्म का संदेश भेजकर) हमें जीते जी मार डाला है। जिस प्रकार बहेलिया जाल बिछाकर दाने डालता है और पक्षी के फँस जाने पर उनकी बुरी दशा करता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण ने पहले तो झूठा प्रेम दर्शाकर अपने कपट जाल में फँसा लिया तत्पश्चात् हमें वियोग की वेदना में तड़पते छोड़कर मथुरा जा बैठे। और हद तो यह है कि अब तुम्हारे हाथों निर्गुण ब्रह्म की उपासना का सन्देश देकर हमारी पीड़ा को उद्विग्न कर रहे हैं। कृष्ण ने मुरली के मधुर स्वर रूपी लासा (बधिक का हथियार) अपने हाथ रूपी बाँस पर लगाकर कम्पा बनाया, इसके पश्चात् मोर पंख रूपी टटिया की आड़ में छिपकर किसी कुशल बहेलिए की भाँति हम गोपियों रूपी चिड़ियों को अपने प्रेमजाल में फँसा लिया। अपनी बंकम चितवन की ज्वाला में जलने हेतु छोड़ दिया। इस प्रकार प्रेम की ज्वाला में हमारा सर्वस्व होम (स्वाहा) हो गया। हम अपने शरीर को भी बचाने में असफल ही रहीं। तन-मन से कृष्ण के प्रेम जाल में फँसकर कृष्ण रूपी बहेलिए के वश में होकर रह गई। जिस प्रकार बहेलिया पक्षियों को तड़पा-तड़पा कर अग्नि में भूनता है तथा भक्षण करता है उसी प्रकार श्रीकृष्ण भी हमें वियोगग्नि में जलता छोड़कर मथुरा प्रस्थान कर गए। व न तो लौटे और न ही हमारे लिए कोई शुभ संदेशा भेजा। इस प्रकार हम अभागिने पुनः कृष्ण रूपी कल्पवृक्ष की डाल पर बैठकर आनन्द का उपभोग न कर सकीं। अब हम गोपांगनाएँ आश्रयहीन पक्षियों के समान भटकते हुए श्रीकृष्ण रूपी कल्पवृक्ष की छाया की आशा में भटकती रहती है परन्तु सम्पूर्ण मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले कृष्ण रूपी कल्पवृक्ष की छाया का सुख नहीं प्राप्त कर पाती हैं।

विशेष -
(1) सांगरूपक अलंकार द्वारा बहेलिए की पक्षी पकड़ने की क्रिया का वर्णन किया गया है।
(2) कृष्ण को निर्मम छली बहेलिए के रूप में प्रस्तुत किया है।
(3) प्रस्तुत पद में व्यंग्य के स्थान पर दैन्य मिश्रित उपालम्भ प्रयुक्त हुआ है।
(4) गोपियों की मार्मिक अवस्था का करूण चित्र प्रस्तुत हुआ है।
(5) गोपियाँ कृष्ण को मनोवांछित कामनाओं को पूर्ण करने वाले कल्पतरू के रूप में देखती है।

 

(19)

बिन गोपाल बैरिन भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजै॥
वृथा बहति जमुना, खग बोलत, वृथा फमल फूलै, अलि गुंजै।
पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत फिरन भानु भई भुंजै॥

शब्दार्थ - पुंजै = समूह, अलि = भ्रमर, घनसार = कपूर, लुंजै कदन = धुरी, लुंजै = अशक्त, लुंज-पुंज, गुंजै = गुंज, वरण = वर्ण रंग।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में वियोगाग्नि में तिल-तिल जलती गोपांगनाओं पर प्रकृति के उपादानों का प्रतिकूल प्रभाव का स्वाभाविक वर्णन प्रस्तुत हुआ है। संयोग काल के आनन्ददायक विधान उनकी विरहाग्नि को अधिक तीव्रता प्रदान कर रहे हैं। गोपियों की मार्मिक अवस्था का अंकन हुआ है।

व्याख्या - गोपियाँ कृष्ण के वियोग से पीड़ित है उस पर वे कुंजे श्रीकृष्ण के साथ संयोगावस्था में जिनके आश्रय में वे कृष्ण के साथ नित्य क्रीड़ा विहार में निमग्न रहती थीं. श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति में उन्हें शत्रु के सामान पीड़ा पहुँचा रही हैं। श्रीकृष्ण के साहचर्य में अत्यंत शीतलता प्रदान करने वाली वही लताएँ आज उनके वियोगकाल में अग्नि की ज्वालाओं के समान गोपियों के अंग प्रत्यंगों को दग्ध कर रही है। श्रीकृष्ण के अभाव में जमुना भी व्यर्थ ही प्रवाहित होती प्रतीत होती है और पक्षियों का कलरव भी व्यर्थ प्रतीत हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि कमल का खिलना तथा उन पर भ्रमरों का गुंजार करना भी निरर्थक ही है। अर्थात् श्रीकृष्ण के बिना इन शोभा विधायक सुखद उपादानों की हमारे लिए कोई सार्थकता नहीं रह गई। ये हमें और दुखी करते हैं। ये समस्त उपादान हमारे लिए तभी सुखदाई थे जब श्रीकृष्ण हमारे साथ थे। अब प्रिय के अभाव में इनके सौन्दर्य की हमारे लिए कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। संयोग काल में वायु, जल, कपूर (शीतलता देने वाले पदार्थ) आदि हमें संजीवनी बूटी के समान जीवन- दायक प्रतीत होते थे किन्तु विरह काल में यही उपादान हमें संतप्त कर देते हैं। संयोगकावस्था में शीतलता व सुख देने वाली चन्द्र किरणें अब हमें ग्रीष्म कालीन सूर्य के प्रचण्ड ताप से भूनने वाली बन गई हैं। गोपांगनाएँ उद्धव को संबोधित कर कहती है कि हे उद्धव! तुम माधव से जाकर कहना कि उनका विरह वधिक के समान गोद गोद कर गोपियों के अंग-प्रत्यगों को क्षीण किए जल रहा है। अर्थात् श्रीकृष्ण के वियोग की मर्मान्तर पीड़ा गोपियों के जीवन पर संकट उत्पन्न कर रहा है। श्रीकृष्ण की बाट जोहते- जोहते / दिन-रात जागते रहने) गोपियों की आँखे गुंजा के समान लाल पड़ गई हैं। अर्थात् दिन रात श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा में जागने के कारण आँखों का रंग लाल हो गया है।

विशेष -
(1) संयोगकालीन उपादानों के वियोगावस्था में प्रतिकूल प्रभाव डालने के मनोवैज्ञानिक सत्य का निरूपण हुआ है। रामचरित मानस में राम कहते हैं -

"कहे राम वियोग तब सीता, सो कह सकल भए विपरीता।
नवतरु किसलय मनहु कृपानु, काल निसा सम निसि ससि भानू॥"


(2) प्रकृति के उद्दीपन रूप का प्रदर्शन हुआ है।
(3) गोपियों की विरह विदग्धता का सहज स्वाभाविक व मार्मिक चित्रण हुआ है।

 

(20)

1 अति मलीन... ... ... ... स्याम दुलारी।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - कृष्ण के विरह के कारण राधा की श्रीहीन कान्ति का शब्द - चित्र प्रस्तुत हुआ है। उद्धव के निर्गुण ब्रह्म के उपदेश ने राधा की कारुणिक स्थिति को और अधिक विषम बना दिया है।

व्याख्या - श्रीकृष्ण के प्रेम में आकण्ठ डूबी राधा के विरह ने अत्यंत मलिन और शिथिल बना दिया है। राधा की संखियाँ उनकी इस अवस्था की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि श्रीकृष्ण के वियोग से वृषभानु कुमारी राधा की कान्ति अत्यंत मलिन हो गई है। उनकी साड़ी में श्रीकृष्ण के लीला विहार के समय भावोद्रेक के कारण उत्पन्न पसीने की सुवाच रची बसी है। इस साड़ी से श्रीकृष्ण की परिमल देह की सुगन्ध की अनुभूति होने के कारण राधा ने उस मैली हो चुकी साड़ी को अपने अंग से विलग नहीं किया। वो उसे धुलवाती भी नहीं है इस प्रकार श्रीकृष्ण की क्रीड़ा का स्मृति चिह्न मानकर वो उस मैली साड़ी को ही धारण किए रहती हैं। राधा प्रतिक्षण अपने मुरझाए हुए कमल के समान मुख को नीचा किए हुए श्रीकृष्ण के साथ व्यतीत किए गए मधुर क्षणों की सुखद स्मृति में ही डूबी रहती हैं। वह कभी अपना मुख उठाकर नहीं देखती। उसकी दशा उस जुआरी की भाँति प्रतीत होती है जो अपने समस्त पूँजी जुएँ में हाररकर उदास बैठ जाता है। श्रीकृष्ण पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाली राधा उनकी स्मृति में ही विह्वल रहती है।

राधा के बिखरे बाल तथा कुम्हलाया हुआ श्रीहीन मुखमंडल उस कमलिनी का स्मरण कराते हैं जो तुषारापात के कारण अपनी समस्त कान्ति खो बैठती है। (अर्थात् सखिया राधा की कान्तिहीन अवस्था की तुलना पाले की मार से शोभाहीन हुई कमलिनी से कर रही हैं) कृष्ण के निर्गुण ब्रह्म का उपदेश सुनकर तो वह मरणासन्न हो गई हैं। एक तो राधा पहले से ही वियोग पीड़ा से संतप्त थी अब उद्धव द्वारा निर्गुण ब्रह्म का उपदेश दिया जाना उसे और अधिक व्यथित कर रहा है। अब तो उसकी दशा मृतप्राय प्राणी के समान ही हो चुकी है।

सूरदास कहते हैं कि कृष्ण के विरह में अकेली राधा ही शोक संतप्त नहीं है बल्कि सम्पूर्ण ब्रजांगनाओं की ऐसी ही विषम अवस्था है। श्रीकृष्ण की प्रिया समस्त ब्रज की युवतियों राधा के समान ही मर्मान्तक पीड़ा झेलते हुए भी जीवित रहने को विवश हैं।

विशेष -

1. विरहिणी राधा के मार्मिक चित्र द्वारा उनके वियोग की अतिशयता तथा विषमता का वर्णन प्रस्तुत हुआ है।
2. विरह की दशाओं यथा जड़ता, मरण आदि का वर्णन हुआ है।
3. उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, उदाहरण आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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